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बगैर तलाक लिए Live-in Relationship में रहने वाली महिला को नहीं मिलेंगे ये अधिकार, High Court ने सुनाया फैसला

High Court Decision in Live-in Relationship : पति को छोड़कर बॉयफ्रेंड के साथ रहना इसी को कहते है लिव-इन-रिलेशनशिप। लेकिन क्या आपकी जानकारी के लिए बता दें कि हाईकोर्ट ने लिव-इन-रिलेशनशिप( Live-in Relationship ) को लेकर एक फैसला सुनाया है। जिसमें कहा है कि अपने पति को तलाक दिए बगैर लिव-इन-रिलेशनशिप में रहनी वाली महिला को ये अधिकार नहीं दिया जाएगा। आइए नीचे आर्टिकल में जानते है इसके बारे में.

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बगैर तलाक लिए Live-in Relationship में रहने वाली महिला को नहीं मिलेंगे ये अधिकार, High Court ने सुनाया फैसला

HARYANA NEWS HUB : शादी के एक साल बाद ही एक महिला अपने पति से अलग हो गई और अपने बॉयफ्रेंड के साथ लिव-इन रिलेशनशिप (Live in Relationship) में रहने लगी। इसी दौरान वह प्रेग्नेंट भी हो गई। खास बात ये कि उसने अपने पति से तलाक भी नहीं लिया था यानी उसकी शादी अस्तित्व में थी, वह कानूनी शादीशुदा( legal liability ) थी जो पति से अलग अपने पुरुष मित्र के साथ रह रही थी। अस्पताल में उसने बच्चे को जन्म दिया।

बच्चे के जन्म प्रमाण पत्र( Birth certificate ) में पिता के नाम के तौर पर उसके पति का नाम दर्ज हो गया जबकि बायोलॉजिकल पिता( biological father ) उसका लिव-इन पार्टनर( live-in partner ) है। बाद में महिला का तलाक हो गया और अब वह बर्थ सर्टिफिकेट पर बच्चे के पिता के तौर पर अपने लिव-इन पार्टनर का नाम डलवाना चाहती है। मामला नवी मुंबई( Mumbai ) का है। नवी मुंबई महानगर( Navi Mumbai Metropolis ) पालिका ने पिता का नाम बदलने से इनकार कर दिया।

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वाशी मैजिस्ट्रेट कोर्ट में भी महिला की याचिका खारिज हो गई तो वह मुंबई हाई कोर्ट पहुंची। पिछले महीने इस मामले में सुनवाई हुई। अब पूर्व पति की जगह बच्चे के बर्थ सर्टिफिकेट में लिव-इन पार्टनर का नाम डलवाने के लिए वह लंबी कानूनी लड़ाई लड़ रही है। आखिर लिव-इन रिलेशनशिप में रह रहे जोड़े को (Rights of Live-in Partners) कितना अधिकार है?

क्या देश में कानूनन इसकी (Live-in Relationship legal status in India) इजाजत है? शादीशुदा जोड़े के मुकाबले ऐसे जोड़ों को किन अधिकारों से वंचित होना पड़ सकता है? लिव-इन रिलेशन से (Rights of child born out from a live-in relationship) पैदा होने वाले बच्चों और शादी से पैदा होने वाले बच्चों के अधिकारों में क्या कोई फर्क है? पेश है 'हक की बात' (Haq Ki Baat) सीरीज के इस अंक में बात लिव-इन रिलेशनशिप और अधिकारों की।

लिव-इन रिलेशनशिप क्या है?

लिव-इन रिलेशनशिप (What is Live-in Relationship) को आसान शब्दों में कहें तो 'बिन फेरे हम तेरे' का रिश्ता। जहां दो बालिग बिना शादी किए एक साथ रोमांटिक रिलेशनशिप में रहते हों। एक छत के नीचे, पति-पत्नी की तरह। लिव-इन रिलेशन में पार्टनर भले ही पति-पत्नी की तरह रहते हों लेकिन वो शादी के बंधन से नहीं बंधे होते और शादी के लिहाज से एक दूसरे के प्रति जो कानूनी जिम्मेदारियां होती हैं, उससे वो मुक्त होते हैं।

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लिव-इन रिलेशनशिप की कानूनी स्थिति?

किसी भी पुरुष या महिला के लिए बिना शादी किए किसी के साथ रोमांटिक रिलेशन में रहना कानून के हिसाब से गलत नहीं है। वो दोनों एक छत के नीचे, बिल्कुल किसी पति-पत्नी की तरह रिश्ता रख सकते हैं, ये गैरकानूनी नहीं है। चाहे वह शादीशुदा हों, तलाकशुदा हों, दोनों पार्टनर पहले से शादीशुदा हों या अविवाहित हों...वह लिव-इन रिलेशनशिप में रहते हैं तो ये बिल्कुल गैरकानूनी नहीं है,

अपराध नहीं है। कानून के हिसाब से दो बालिग अपनी मर्जी से सेक्स संबंध बना सकते हैं, लिव-इन रिलेशन में भी रह सकते हैं। आलोचक नैतिकता की दुहाई देकर इसका विरोध करते हैं लेकिन कानून के हिसाब से लिव-इन रिलेशनशिप में कुछ भी गलत या गैरकानूनी या आपराधिक नहीं है।


ये तो रही लिव-इन रिलेशनशिप की कानूनी स्थिति की बात। लेकिन लिव-इन रिलेशनशिप को लेकर देश में स्पष्ट कानून नहीं है। इस तरह की रिलेशनशिप में रहने वाले जोड़ों को तमाम चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। उन्हें कानून से समुचित संरक्षण नहीं मिलता क्योंकि लिव-इन रिलेशनशिप से जुड़े मसलों से निपटने के लिए अलग से कोई कानून ही नहीं है। हालांकि, अदालतें समय-समय पर इससे जुड़े मसलों पर अहम फैसले सुनाती रहती हैं जिससे लिव-इन पार्टनर्स को कानूनी सुरक्षा मिलती है। लिव इन रिलेशनशिप में रहने वाले कपल को शादीशुदा कपल की तरह कानूनी अधिकार नहीं हैं।

लिव-इन पार्टनर्स को नहीं मिलते ये अधिकार :

लिव-इन रिलेशनशिप में रहने वाले जोड़े शादीशुदा जोड़ों के कई अधिकारों से वंचित रहते हैं। लिव-इन पार्टनर का एक दूसरे की संपत्ति में उनका अधिकार या उत्तराधिकार नहीं हो सकता, लेकिन शादी के मामले में ऐसा नहीं होता। लिव-इन पार्टनर अगर अलग होते हैं तो वो मैंटिनेंस यानी भरण-पोषण का दावा नहीं कर सकते। हालांकि, लिव-इन रिलेशन से पैदा हुए बच्चे को उसी तरह के कानूनी अधिकार हासिल हैं जो शादीशुदा कपल के बच्चे के होते हैं यानी उन्हें संपत्ति, उत्तराधिकार जैसे सभी अधिकार मिलेंगे जो किसी शादीशुदा जोड़े के बच्चे को मिलते हैं।

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इलाहाबाद हाई कोर्ट के लिव-इन को लेकर दो हालिया फैसले :

लिव-इन रिलेशनशिप में रहने वालों को शादीशुदा जोड़ों की तरह कानूनी संरक्षण नहीं मिलता, इसकी सबसे बड़ी मिसाल तो इलाहाबाद हाई कोर्ट का एक हालिया फैसला है। लिव-इन में रह रहे एक जोड़े ने हाई कोर्ट से सुरक्षा की गुहार लगाई थी लेकिन कोर्ट ने उसे खारिज कर दिया। लिव-इन में रह रही महिला का अपने पति से कानून तलाक नहीं हुआ था। हालांकि, कोर्ट ने ये जरूर कहा कि अगर लिव-इन में रह रहे जोड़े को खतरा महसूस हो रहा है तो सुरक्षा की मांग को लेकर वो पुलिस के पास जा सकते हैं या सक्षम अदालत का रुख कर सकते हैं।

इलाहाबाद हाई कोर्ट ( Allahabad High Court on Live-in Relationship ) ने ही लिव-इन में रेप जुड़े एक अन्य केस में अपने हालिया फैसले में इस कॉन्सेप्ट पर ही सवाल उठाया था। 1 सितंबर को दिए अपने आदेश में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने कहा कि जानवरों की तरह हर मौसम में पार्टनर बदलने का चलन एक सभ्य और स्वस्थ समाज की निशानी नहीं हो सकता। हाई कोर्ट ने कहा कि शादी में जो सुरक्षा, सामाजिक स्वीकृति और स्थायित्व मिलती है वह लिव-इन रिलेशनशिप में कभी नहीं मिल सकती।

जस्टिस सिद्धार्थ की सिंगल बेंच ने कहा शादी नाम की संस्था को खत्म करने की कोशिशें हो रही हैं। मामला लिव-इन रिलेशन में एक साल तक रहे जोड़े का था। महिला पार्टनर ने पुरुष पार्टनर पर रेप का आरोप लगाया था। वह प्रेग्नेंट हो गई थी। हाई कोर्ट ने आरोपी को जमानत देते हुए लिव-इन रिलेशन को लेकर कई कठोर टिप्पणियां कीं।

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लिव-इन रिलेशन का दर्जा शादी का तो नहीं, लेकिन ये संरक्षण जरूर :


लिव-इन रिलेशनशिप से जुड़े तमाम पहलुओं, मसलों से निपटने के लिए भले ही कोई अलग से कानून नहीं हो लेकिन लिव-इन पार्टनर्स को कुछ मामलों में कानूनी संरक्षण हासिल है। लिव-इन रिलेशन में रहने वाली महिला अगर घरेलू हिंसा की शिकार होती है तो उसे डोमेस्टिक वाइलेंस ऐक्ट, 2005 के तहत प्रोटेक्शन हासिल है। इस कानून में डोमेस्टिक रिलेशनशि को इस तरह पारिभाषित किया गया है- दो व्यक्ति एकसाथ एक साझे घर में रहते हों जिनका रिश्ता शादी जैसा हो।

इसलिए लिव-इन में रहने वाली महिला घरेलू हिंसा की सूरत में उसी तरह इस कानून का सहारा ले सकती है जिस तरह कोई शादीशुदा महिला लेती है। इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट ने अपने कई फैसलों में कह चुका है कि अगर कोई जोड़ा लिव-इन रिलेशनशिप में लंबे समय से रह रहा है, तो विशेष परिस्थितियों में उन्हें पति और पत्नी के तौर पर माना जा सकता है।

अलग होने पर महिला मैंटिनेंस का भी दावा कर सकती है। इसके लिए शर्त ये है कि पार्टनर लंबे समय से लिव-इन में रह रहे हों, एक छत के नीचे रह रहे हों यानी साझा घर में। घर की जिम्मेदारियों को संयुक्त रूप से उठा रहे हों, बैंक अकाउंट जॉइंट हो या जॉइंट नेम से प्रॉपर्टी खरीदे हों। इन परिस्थितियों में लिव-इन रिलेशन को शादी सरीखा माना जा सकता है। लिव-इन रिलेशनशिप से अगर बच्चे हों तो ये इसे शादी जैसा मानने का मजबूत आधार हो सकता है।

नैतिकता बनाम कानून पर अदालती फैसले :

लिव-इन रिलेशनशिप का कॉन्सेप्ट बिल्कुल नया भी नहीं है। 1970 के दशक में ही इससे जुड़ा मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा था। 1978 में सुप्रीम कोर्ट ने बद्री प्रसाद बनाम बोर्ड ऑफ कंसोलिडेटर्स मामले में ऐतिहासिक फैसला दिया कि अगर कोई कपल लंबे समय से लिव-इन में रह रहा है तो उसे पति-पत्नी की तरह माना जा सकता है।


2001 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने पायल शर्मा बनाम नारी निकेतन केस में कहा कि किसी महिला और पुरुष का बिना शादी किए एक साथ रहना गैरकानूनी नहीं है। कोर्ट ने नैतिकता और कानून के बीच फर्क भी समझाया। कोर्ट ने कहा कि इसे समाज अनैतिक समझ सकती है लेकिन ये गैरकानूनी नहीं है।

2006 में सुप्रीम कोर्ट ने लता सिंह बनाम यूपी राज्य मामले में कहा कि विपरीत लिंग को दो शख्स अगर एक साथ रह रहे हैं तो ये गैरकानूनी नहीं है। 2010 में सुप्रीम कोर्ट ने एस. खुशबू बनाम कन्नीअम्माल और अन्य मामले में 2006 के फैसले को फिर दोहराया कि विपरीत लिंग के दो बालिग अगर एक साथ रह रहे हैं तो इसमें कोई अपराध नहीं है, भले ही इसे अनैतिक के तौर पर देखा जाता हो।

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लिव-इन रिलेशन पर सुप्रीम कोर्ट के अहम फैसले :

2013 में सुप्रीम कोर्ट ने इंद्र शर्मा बनाम वी.के.वी. शर्मा केस में लिव-इन में रह रहीं महिलाओं को एक बड़ा कानूनी संरक्षण देते हुए फैसला सुनाया कि उनको भी प्रोटेक्शन ऑफ वूमेन फ्रॉम डोमेस्टिक वाइलेंस ऐक्ट, 2005 यानी घरेलू हिंसा कानून के तहत संरक्षण हासिल है। कानून के सेक्शन 2 (f) में डोमेस्टिक रिलेशनशिप की परिभाषा दी गई है। लिव-इन रिलेशन भी उसके दायरे में आता है।

मई 2022 में सुप्रीम कोर्ट ने ललिता टोप्पो बनाम झारखंड राज्य मामले में कहा कि लिव-इन पार्टनर भी प्रोटेक्शन ऑफ वूमेन फ्रॉम डोमेस्टिक वाइलेंस ऐक्ट, 2005 के प्रावधानों के तहत मैंटिनेंस की मांग कर सकती हैं।

लिव-इन रिलेशनशिप से जन्मे बच्चों के अधिकार :

1993 में सुप्रीम कोर्ट ने एस.पी.एस. बालासुब्रमण्यम बनाम सुरुत्तायन केस में कहा कि लंबे समय तक चले लिव-इन रिलेशन से पैदा हुए बच्चे को पैतृक संपत्ति में भी हिस्सा मिलेगा।


2010 में एक अन्य मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि लिव-इन रिलेशनशिप से पैदा हुआ बच्चा माता-पिता की संपत्ति का उत्तराधिकारी हो सकता है।

जून 2022 में सुप्रीम कोर्ट ने कट्टुकंडी एदाथिल कृष्णन और अन्य बनाम कट्टुकंडी एदाथिल वालसन और अन्य मामले में कहा कि लिव-इन रिलेशनशिप से पैदा हुए बच्चों को शादीशुदा जोड़े के बच्चों की तरह ही प्रॉपर्टी से लेकर उत्तराधिकार तक के अधिकार मिलेंगे। शर्त ये है कि लिव-इन रिलेशन लंबा हो और इस तरह का नहीं हो कि जब चाहा साथ रहने लगे, जब चाहा अलग हो गए।

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लिव-इन रिलेशनशिप के आधार पर वीजा की अवधि बढ़ाने का अधिकार :

सुप्रीम कोर्ट ने 2015 में स्वेतलाना कजानकिना बनाम भारत सरकार मामले में ऐतिहासिक फैसला सुनाया। उज्बेकिस्तान की महिला एक भारतीय पुरुष के साथ लिव-इन रिलेशनशिप में रह रही थी। वह अपने पार्टनर के साथ रहने के लिए वीजा की अवधि बढ़वाना चाहती थी लेकिन नियमों के मुताबिक, उसे इसके लिए शादी का प्रूफ देना होता जबकि वह तो लिव-इन रिलेशन में थी। वीजा एक्सटेंशन के लिए उसने कोर्ट का रुख किया। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि वीजा एक्सटेंशन के मामले में शादी और लिव-इन रिलेशनशिप में फर्क करके नहीं देखा जाना चाहिए। शीर्ष अदालत ने उज्बेक महिला का वीजा एक्सटेंड करने का आदेश दिया।